उत्तराखंड में शिक्षक विद्यालयों में भविष्य के कर्णधार तैयार करने के बजाय, चौराहों पर चिमटा और डमरू बजा रहे हैं, जो यह तस्दीक करता है कि प्रदेश के शिक्षक कितने संवेदन शून्य हो चुके हैं।
जिन तीन सूत्रीय मांगों को लेकर ये लोग सड़कों पर छाती पीट रहे हैं, असल में इन्हीं लोगों ने सरकार से मांग की थी कि प्रधानाचार्य के पदों पर विभागीय भर्ती, एलटी से प्रवक्ता पदों पर प्रमोशन और प्रधानाध्यापकों के पदों पर पदोन्नति की जाय, और अब ये लोगअपनी मांगों से पलट गये, अब इन्हें ये नहीं चाहिये।
गजब देखिए…जो राजकीय शिक्षक संघ इन्हें आंदोलन की मुगली घुट्टी पिला रहा है उसके पदाधिकारियों का कार्यकाल कब का खत्म हो चुका है।
दूसरा यही लोग नहीं चाहते हैं कि प्रधानाचार्य पदों पर भर्ती हो और वरिष्ठता विवाद सुलझ जाये। अगर ये दोनों प्रकरण हल हो जाते हैं तो इनकी राजनीतिक आड़ खत्म हो जायेगी और इन्हें मजबूरन स्कूलों में पढ़ाने जाना पड़ेगा। लेकिन ऐसा ये कभी नहीं चाहेंगे, क्योंकि इन्हें इस बात का भी भय सता रहा है कि प्रधानाचार्य के पदों पर तेज-तर्रार युवा तुर्क आयेंगे और उनकी एक न सुनेंगे, जिससे सालों साल से जमा-जमाई उनकी नेतागिरी को बट्टा लग जायेगा।
धरना और प्रदर्शन कर विद्यालयों को ठप करने वाले ये लोग कभी शिक्षक हो ही नहीं सकते, इन्हें इस बात का कतई भी इल्म नहीं कि गरीबों के बच्चों का भविष्य अंधकार में छोड़कर वह नैतिकता की दुहाई कैसे दे रहें हैं।
अपने कर्तव्यों से विमुख होना शिक्षक धर्म तो कतई नहीं है। वह भी तब जब शिक्षकों ने ही प्रधानाचार्य पद को सीधी भर्ती से न कर, विभाग में कार्यरत सहायक अध्यापकों, एवं प्रवक्ता की विभागीय परीक्षा से माध्यम से कराने की मांग की थी। इन्हीं लोगों ने वरिष्ठता विवाद को पेचिदा बना दिया है।
कई शिक्षक साथी ऐसे हैं जो प्रधानाचार्य पदों पर भर्ती चाहते हैं, वरिष्ठता विवाद को हल करना चाहते हैं लेकिन ऐसे शिक्षकों की आवाज कुचलने के लिये कतिपय लोग झूठी साजिशें चल देते हैं।
खैर उत्तराखंड में दोहरे चरित्र के इन शिक्षकों के दिन जरूर लदेंगे।

